बॉक्स-ऑफिस की मुश्किलें: क्यों ‘एक चतुर नार’, ‘लव इन वियतनाम’, ‘हीर एक्सप्रेस’ बनी फ्लॉप?By Admin Sun, 14 September 2025 05:38 AM

मुंबई- फिल्मी दुनिया में हर शुक्रवार प्रोड्यूसरों के लिए शुभ साबित हो, यह ज़रूरी नहीं है। कई बार यह दिन उन्हें गहरे सदमे और निराशा की ओर भी धकेल देता है। इस शुक्रवार सिनेमाघरों में कई छोटे बजट की फ़िल्में रिलीज़ हुईं — ‘एक चतुर नार’, ‘लव इन वियतनाम’, ‘हीर एक्सप्रेस’, ‘मन्नू क्या करेगा’ और ‘जुगनुमा – द फेबल’। लेकिन अफसोस कि इनमें से कोई भी फिल्म दर्शकों को आकर्षित नहीं कर सकी और सभी बॉक्स-ऑफिस पर बुरी तरह असफल रहीं।

फिल्म ट्रेड विशेषज्ञ गिरीश वाणखेडे ने आईएएनएस से बातचीत में इन फिल्मों की असफलता के पीछे की वजहें साफ़ तौर पर बताईं। आमतौर पर छोटे बजट की फिल्मों को बड़ी फिल्मों या किसी बड़े स्टारर रिलीज़ से टक्कर मिलती है तो नुकसान उठाना पड़ता है। लेकिन जब एक ही स्तर की कई छोटी फिल्में एक साथ रिलीज़ हों और फिर भी दर्शकों तक न पहुँच पाएं, तो समस्या कहीं और होती है।

गिरीश वाणखेडे ने बताया, “ये पांचों फिल्में बॉक्स-ऑफिस पर पूरी तरह धराशायी हो गईं। अगर मैं आंकड़े साझा करूं, तो ‘एक चतुर नार’ ने करीब 50 लाख रुपये कमाए, ‘लव इन वियतनाम’ ने मात्र 6 लाख रुपये, ‘मन्नू क्या करेगा’ लगभग 45 लाख रुपये पर अटक गई, ‘जुगनुमा’ ने सिर्फ 5 लाख रुपये जुटाए और ‘हीर एक्सप्रेस’ करीब 55 लाख रुपये तक ही सीमित रही। कई जगह तो शो कैंसल करने पड़े क्योंकि दर्शक ही मौजूद नहीं थे।”

उन्होंने साफ़ कहा कि इन फिल्मों की कमज़ोर मार्केटिंग रणनीति उनकी सबसे बड़ी दुश्मन साबित हुई। किसी फिल्म की सफलता के लिए उसका प्रचार-प्रसार बेहद ज़रूरी होता है, लेकिन इन फिल्मों के मामले में न तो कोई चर्चा हुई, न ही कोई हलचल दिखी।

उन्होंने आगे कहा, “इन फिल्मों की सबसे बड़ी कमजोरी यही रही कि इनके लिए कोई मार्केटिंग ही नहीं की गई। कोई हलचल नहीं, कोई दृश्यता नहीं। अगर आप किसी आम आदमी से पूछेंगे तो उसे यह तक नहीं पता होगा कि ‘हीर एक्सप्रेस’, ‘जुगनुमा’ या ‘एक चतुर नार’ जैसी फिल्में रिलीज़ हुई हैं। जब प्रचार और दृश्यता ही नहीं होगी, तो दर्शक थियेटर तक कैसे पहुंचेंगे?”

गिरीश वाणखेडे ने यह भी जोड़ा कि मार्केटिंग की कमी के साथ-साथ इन फिल्मों की सामग्री यानी कंटेंट भी बेहद कमजोर रही। अगर कंटेंट दमदार होता, तो दर्शकों के बीच मुंहज़ुबानी प्रचार (word of mouth) के जरिए इन्हें थोड़ी बहुत सफलता ज़रूर मिल सकती थी।

उन्होंने कहा, “ना तो कंटेंट मजबूत था और ना ही मार्केटिंग असरदार। अगर कंटेंट अच्छा होता तो समीक्षाओं में उसकी झलक मिलती। अगर फिल्म में कोई ताकतवर चीज़ होती, तो वह लोगों के बीच चर्चा का विषय बनती और धीरे-धीरे दर्शकों को आकर्षित करती। लेकिन जब दोनों ही पहलू कमज़ोर हों तो नाकामी तय है।”

 

With inputs from IANS