
शिमला — हिमालयी क्षेत्र के 30 से अधिक संगठनों और 40 से ज्यादा व्यक्तियों ने राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA) की उच्चस्तरीय समिति को एक संयुक्त ज्ञापन सौंपा है, जिसमें आपदा शासन (Disaster Governance) और जलवायु तैयारी (Climate Preparedness) में त्वरित सुधार की मांग की गई है।
ज्ञापन में यह भी कहा गया है कि सभी चल रहे और प्रस्तावित मेगा प्रोजेक्ट्स की स्वतंत्र और वैज्ञानिक समीक्षा की जानी चाहिए ताकि उनके पर्यावरणीय और आपदाजन्य जोखिमों का समग्र आकलन हो सके।
यह संयुक्त बयान "पीपल फॉर हिमालय" अभियान के तहत जारी किया गया है, जो इस वर्ष की विनाशकारी मॉनसून आपदाओं के बाद आया है। इन आपदाओं ने हिमालयी राज्यों की गंभीर पारिस्थितिक नाजुकता और शासन की विफलताओं को उजागर कर दिया है।
बयान में कहा गया है कि 2025 के मॉनसून सीजन ने उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, लद्दाख, जम्मू-कश्मीर, पूर्वोत्तर और दार्जिलिंग में बाढ़, भूस्खलन, हिमनदी झील फटने (GLOF) और बादल फटने जैसी आपदाओं के ज़रिए व्यापक तबाही मचाई है।
इन आपदाओं के कारण जीवन और संपत्ति की भारी हानि, इंफ्रास्ट्रक्चर का ध्वंस और अवैज्ञानिक विकास, पर्यावरणीय क्षरण तथा नीतिगत उपेक्षा के दुष्परिणाम साफ तौर पर सामने आए हैं।
हस्ताक्षरकर्ताओं का कहना है कि ऐसे घटनाक्रमों की आवृत्ति और पैमाना अब इस बात की मांग करता है कि केंद्र और राज्य सरकारें समन्वित और निर्णायक कदम उठाएं।
पीपल फॉर हिमालय अभियान ने NDMA से आपदा-उपरांत जरूरत मूल्यांकन (PDNA) और वित्तीय सहायता प्रणाली को तुरंत मजबूत करने की मांग की है।
उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में चल रही PDNA अध्ययन प्रक्रिया को जल्द पूरा करने पर जोर दिया गया है ताकि साक्ष्य-आधारित पुनर्वास और पुनर्निर्माण कार्य को दिशा दी जा सके।
दार्जिलिंग और उत्तर बंगाल के अन्य क्षेत्रों में जहां ऐसी अध्ययन प्रक्रिया शुरू नहीं हुई है, वहां केंद्र सरकार को विशेषज्ञ टीम गठित कर सामाजिक, पर्यावरणीय और आजीविका पर प्रभावों का विस्तृत आकलन कराने की सिफारिश की गई है।
ज्ञापन में कहा गया है कि राज्य आपदा प्रतिक्रिया कोष (SDRF) में आवंटन बढ़ाया जाए ताकि हिमालयी क्षेत्रों की जटिल और बढ़ती जोखिम स्थितियों का सामना किया जा सके।
साथ ही, पहाड़ी राज्यों के लिए एक समर्पित आपदा शमन और जलवायु अनुकूलन कोष बनाने की मांग की गई है, जिसमें पारदर्शिता और जन-उत्तरदायित्व के तंत्र शामिल हों।
एक प्रमुख चिंता यह भी जताई गई है कि बड़े पैमाने के इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स (हाईवे, हाइड्रोपावर, सुरंगें, रेलवे आदि) आपदाओं के जोखिम को बढ़ा रहे हैं।
ऐसे प्रोजेक्ट्स नदियों के तल में बदलाव, ढलानों की अस्थिरता और वनों की कटाई जैसी समस्याओं को जन्म दे रहे हैं।
अभियान ने मांग की है कि सभी बड़े प्रोजेक्ट्स की स्वतंत्र वैज्ञानिक समीक्षा की जाए और संवेदनशील भू-भागों में निर्माण कार्यों पर रोक लगाई जाए।
इसके अलावा पर्यटन और वाणिज्यिक निर्माण गतिविधियों के कड़े नियमन और सभी योजना प्रक्रियाओं में जलवायु परिवर्तन अनुमानों के समावेश की सिफारिश की गई है।
इस संयुक्त ज्ञापन का समर्थन देश-विदेश के अनेक संगठनों और व्यक्तियों ने किया है, जिनमें शामिल हैं —
क्लाइमेट फ्रंट (जम्मू), सिटिज़न्स फॉर ग्रीन दून (उत्तराखंड), सोशल डेवलपमेंट फॉर कम्युनिटीज फाउंडेशन (उत्तराखंड), जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति (उत्तराखंड), हिमधारा कलेक्टिव (हिमाचल प्रदेश), हिमालय नीति अभियान (हिमाचल प्रदेश), द शिमला कलेक्टिव, काउंसिल फॉर डेमोक्रेटिक सिविक एंगेजमेंट (सिक्किम), यूथ फॉर हिमालय, इंडिजिनस पर्सपेक्टिव्स (इंफाल), उत्तराखंड लोक वाहिनी, नेशनल अलायंस ऑफ पीपल्स मूवमेंट (NAPM) और मौसाम नेटवर्क।
With inputs from IANS