केवल नकदी की बरामदगी से भ्रष्टाचार का दोष सिद्ध नहीं होता: सुप्रीम कोर्टBy Admin Wed, 29 October 2025 02:12 PM

नई दिल्ली — सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम (Prevention of Corruption Act) के तहत केवल घूस की रकम की बरामदगी (recovery of tainted currency notes) के आधार पर दोषसिद्धि नहीं की जा सकती। अदालत ने स्पष्ट किया कि गैरकानूनी लाभ (illegal gratification) की मांग और स्वीकृति, दोनों का संदेह से परे प्रमाण (beyond reasonable doubt) होना आवश्यक है, तभी दोष का अनुमान लगाया जा सकता है।

न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची की पीठ ने आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा 1997 के एक रिश्वतखोरी मामले में दोषी ठहराए गए पूर्व सहायक श्रम आयुक्त पी. सोमराजू को बरी करने का आदेश बहाल कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हाईकोर्ट ने निचली अदालत की विस्तृत दलीलों पर विचार किए बिना अपने निष्कर्ष थोप दिए और सबूतों में मौजूद खामियों को नजरअंदाज कर दिया।

अदालत ने कहा,
“भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 20 के तहत वैधानिक अनुमान (statutory presumption) स्वतः लागू नहीं होता। यह तभी लागू होता है जब मांग और स्वीकृति के मूल तथ्यों को सिद्ध कर दिया जाए। केवल शक या संदेह, चाहे कितना भी प्रबल क्यों न हो, सबूत का विकल्प नहीं हो सकता।”

सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि —
“भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 7 के तहत अपराध सिद्ध करने के लिए घूस की मांग (demand) का प्रमाण अनिवार्य है। जब तक यह साबित नहीं हो जाता कि आरोपी ने स्वेच्छा से यह रकम रिश्वत के रूप में स्वीकार की, तब तक मात्र नोटों की बरामदगी को अपराध नहीं माना जा सकता। अवैध लाभ की स्वीकृति का प्रमाण तभी संभव है जब मांग का प्रमाण हो।”

न्यायमूर्ति मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ ने अपने विस्तृत निर्णय में अभियोजन पक्ष की कहानी में कई विरोधाभास पाए। अदालत ने कहा —
“हमारे लिए सबसे चिंताजनक बात यह है कि शिकायतकर्ता ने राजेंद्र, जो स्वतंत्र गवाह और मध्यस्थ था, को उस आधे घंटे के दौरान कार्यालय के बाहर रहने का निर्देश दिया, जब कथित रूप से घूस की मांग और स्वीकृति हुई थी।”

इसके अलावा, आरोपी पर किया गया फिनॉलफ्थलीन हैंड-वॉश टेस्ट (phenolphthalein test) नकारात्मक (negative) आया। बचाव पक्ष ने दो स्वतंत्र गवाह प्रस्तुत किए, जिन्होंने गवाही दी कि शिकायतकर्ता को अधिकारी के कक्ष में अकेले देखा गया था, जब कथित घूस की रकम दराज़ में रखी गई थी।

अदालत ने कहा,
“ये परिस्थितियाँ अभियोजन पक्ष की कहानी की जड़ को कमजोर करती हैं और इस बात पर गंभीर संदेह उत्पन्न करती हैं कि मांग और स्वीकृति को संदेह से परे सिद्ध किया गया था या नहीं।”

सुप्रीम कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के फैसले को “तर्कसंगत और साक्ष्यों पर आधारित” बताया और आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा 2011 में दिए गए दोषसिद्धि आदेश को रद्द करते हुए 2003 में विशेष न्यायाधीश द्वारा दिए गए बरी के आदेश को बहाल कर दिया।

अदालत ने निर्देश दिया,
“अपील स्वीकार की जाती है। आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय, हैदराबाद द्वारा 8 जुलाई 2011 को पारित निर्णय और आदेश रद्द किया जाता है, तथा विशेष न्यायाधीश, एसपीई और एसीबी मामलों की अदालत द्वारा पारित बरी का आदेश पुनः लागू किया जाता है। अभियुक्त के जमानत बांड समाप्त किए जाते हैं।”

 

With inputs from IANS