
नई दिल्ली| भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) मद्रास के एक अध्ययन में खुलासा हुआ है कि मानव गतिविधियों का बादल बनने वाले एयरोसॉल्स पर गहरा असर पड़ता है।
इस शोध में जर्मनी के माइंज स्थित मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट फॉर केमिस्ट्री के सहयोग से भारत के तटीय इलाकों में ‘क्लाउड कंडेन्सेशन न्यूक्लियाई’ (CCN) की प्रक्रिया का अध्ययन किया गया।
एयरोसॉल—हवा में मौजूद छोटे-छोटे कण जो बादलों के निर्माण और वर्षा के लिए आवश्यक होते हैं—का अध्ययन जलवायु परिवर्तन की भविष्यवाणियों में सबसे बड़ी अनिश्चितताओं में से एक है।
जलवायु मॉडल अधिकतर कंप्यूटर सिमुलेशन पर आधारित होते हैं, ऐसे में यह शोध वास्तविक आंकड़े प्रदान करता है जो इन मॉडलों को और सटीक बनाने में मदद कर सकते हैं।
पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के सचिव और जलवायु वैज्ञानिक डॉ. एम. रविचंद्रन ने कहा, “एयरोसॉल-बादल की परस्पर क्रियाएं बेहद जटिल होती हैं और यह अध्ययन दर्शाता है कि मानव गतिविधियां इन प्रक्रियाओं को गहराई से प्रभावित कर सकती हैं। यह भविष्य की वायुमंडलीय परिस्थितियों को समझने के लिए बेहद अहम जानकारी है।”
आईआईटी मद्रास की टीम ने पाया कि कोविड-19 लॉकडाउन के बाद CCN सांद्रता में 80 से 250 प्रतिशत तक की वृद्धि दर्ज हुई।
अध्ययन के अनुसार, इस बढ़ोतरी की वजह नए कणों का अधिक बार बनना था, जिसे न्यू पार्टिकल फॉर्मेशन (NPF) कहा जाता है। यह प्रक्रिया गैसों से वायुमंडल में जटिल रासायनिक क्रियाओं के जरिए एयरोसॉल बनने पर होती है। लॉकडाउन के बाद जैसे-जैसे मानवीय उत्सर्जन फिर से बढ़ा, वैसे-वैसे यह प्रवृत्ति तेज हुई।
अध्ययन से यह भी सामने आया कि इन नए कणों की वृद्धि में मानवजनित कार्बनिक पदार्थ (Anthropogenic Organic Matter) की भूमिका प्रमुख थी। यह पारंपरिक धारणा के विपरीत है कि कार्बनिक कण बादल बनने की प्रक्रिया को बाधित करते हैं।
मुख्य शोधकर्ता और आईआईटी मद्रास के पर्यावरण अभियांत्रिकी विभाग के प्रोफेसर सचिन एस. गुंथे ने कहा, “हमारे शोध से पता चलता है कि मानवजनित उत्सर्जन एयरोसॉल्स के व्यवहार को गहराई से प्रभावित करता है, खासकर इस मामले में कि वे बादलों का निर्माण कैसे करते हैं। ये निष्कर्ष मौजूदा मॉडलों को चुनौती देते हैं और जलवायु पैटर्न को समझने के नए रास्ते खोलते हैं।”
यह अध्ययन अमेरिकी केमिकल सोसायटी की पत्रिका ES&T Air Journal में प्रकाशित हुआ है। शोधकर्ताओं को उम्मीद है कि यह निष्कर्ष जलवायु वैज्ञानिकों को अपने मॉडल और दृष्टिकोण को पुनः मूल्यांकित करने में मदद करेंगे।
With inputs from IANS