दुर्लभ खनिजों के निष्कर्षण में सहारा बन सकता है शैवाल : विशेषज्ञBy Admin Thu, 11 September 2025 12:55 PM

तिरुवनंतपुरम: भारत पारंपरिक और पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने वाली दुर्लभ खनिजों (Rare Earth Elements - REEs) की खनन प्रक्रिया पर निर्भरता घटा सकता है, यदि वह शैवाल-आधारित बायोरिफाइनरी दृष्टिकोण अपनाए। यह बात सेंटर फॉर साइंस इन सोसाइटी एवं इंटरनेशनल बायोटेक्नोलॉजिकल एप्लिकेशंस के निदेशक लालधस के.पी. ने कही।

उन्होंने बताया कि भारत के पास समुद्र तट की रेत और पूर्वोत्तर में पर्याप्त मात्रा में REE भंडार मौजूद हैं, लेकिन अयस्कों की जटिल संरचना के कारण उनका निष्कर्षण कठिन है। वर्तमान में इलेक्ट्रॉनिक्स, नवीकरणीय ऊर्जा और रक्षा उद्योगों के लिए जरूरी REEs वैश्विक स्तर पर राजनीतिक रूप से संवेदनशील और पर्यावरण को हानि पहुँचाने वाली खदानों से प्राप्त किए जाते हैं।

लालधस के अनुसार, शैवाल-आधारित खनन एक नया और पर्यावरण-सुरक्षित तरीका है, जो पारंपरिक चुनौतियों से बचाता है। इस तकनीक में समुद्री शैवाल (मैक्रोएल्गी) की प्राकृतिक क्षमता का उपयोग किया जाता है, जो समुद्री जल से धातुओं को अत्यधिक मात्रा में अवशोषित कर सकते हैं। शोध से पता चला है कि कुछ प्रजातियां अपने ऊतकों में पानी की तुलना में एक मिलियन गुना तक अधिक धातु संचित कर सकती हैं।

इस प्रक्रिया को फोटोसिंथेटिक मिनरल सोर्सिंग कहा जाता है, जिसमें धूप और समुद्री शैवाल का उपयोग कर सीधे समुद्र से खनिज प्राप्त किए जाते हैं। यह तरीका जहरीले अपशिष्ट या जल प्रदूषण उत्पन्न नहीं करता, बल्कि कार्बन, नाइट्रोजन और फॉस्फोरस को अवशोषित कर समुद्र के स्वास्थ्य में भी सुधार ला सकता है। लालधस ने कहा, “यह विधि विध्वंसक नहीं, बल्कि पुनर्स्थापित करने वाली है।” हालांकि उन्होंने यह भी जोड़ा कि यह तकनीक अभी शुरुआती चरण में है और इसका व्यावसायिक स्तर पर प्रयोग शुरू नहीं हुआ है।

उन्होंने बताया कि एल्गल बायोरिफाइनरी की अवधारणा केवल खनिज निष्कर्षण तक सीमित नहीं है। इसके जरिए बायोफ्यूल, बायोपॉलिमर और उर्वरक भी बनाए जा सकते हैं, जिससे यह एक बहु-उत्पाद, मूल्यवर्धित प्रणाली बन जाती है, जो परिपत्र अर्थव्यवस्था (circular economy) के अनुरूप है। भारत के पास विशाल समुद्री शैवाल संसाधन और फाइकोरीमेडिएशन (औद्योगिक अपशिष्ट को साफ करने के लिए शैवाल का उपयोग) में सिद्ध विशेषज्ञता होने के कारण उसे विशेष लाभ है।

लालधस ने सुझाव दिया कि खुले समुद्र में परियोजनाएं शुरू करने की बजाय, भारत अपने औद्योगिक स्तर के मौजूदा सिस्टम का उपयोग कर खनिज प्रसंस्करण संयंत्रों के अपशिष्ट से REEs प्राप्त कर सकता है। इसके लिए उन्होंने तीन-स्तरीय रणनीति सुझाई: देशी शैवाल प्रजातियों की पहचान हेतु लक्षित अनुसंधान और विकास कार्यक्रम; पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप के जरिए पायलट प्रोजेक्ट; और अंततः एकीकृत बायोरिफाइनरी के रूप में विस्तार।

उनका मानना है कि उचित नीति समर्थन और निवेश के साथ भारत स्थायी REE आपूर्ति शृंखला में वैश्विक नेता बन सकता है, जिससे पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने वाली खनन पर निर्भरता घटेगी और हरित अर्थव्यवस्था के लक्ष्यों को बढ़ावा मिलेगा।

 

With inputs from IANS