
नई दिल्ली- स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि नई माताओं में प्रसवोत्तर अवसाद (Postpartum Depression), चिंता और अन्य मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से निपटने के लिए राष्ट्रीय कार्यक्रमों में पेरिनेटल मानसिक स्वास्थ्य (गर्भावस्था और प्रसव के बाद एक वर्ष तक का मानसिक स्वास्थ्य) को तुरंत शामिल करना बेहद आवश्यक है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, दुनिया भर में लगभग 10% गर्भवती महिलाएं और 13% प्रसव के तुरंत बाद महिलाएं किसी न किसी मानसिक विकार, मुख्यतः अवसाद से ग्रसित होती हैं।
भारत में हर साल 2.5 करोड़ से अधिक बच्चों का जन्म होता है, लेकिन इस दौरान और प्रसव के बाद एक वर्ष तक मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रही अधिकतर महिलाएं बिना पहचान और उपचार के रह जाती हैं, खासकर ग्रामीण इलाकों में।
एक हालिया सिस्टमैटिक रिव्यू में पाया गया कि भारत में पेरिनेटल डिप्रेशन की दर सामुदायिक स्तर पर 14 से 24% तक है, जबकि कुछ मेटा-विश्लेषण में प्रसवोत्तर अवसाद का औसत 22% पाया गया।
हालांकि, भारत में मातृ मृत्यु दर 2000 के दशक की शुरुआत से अब तक 50% से अधिक घटकर प्रति 1 लाख पर 97 रह गई है, लेकिन मातृ आत्महत्या एक बढ़ती हुई समस्या बन चुकी है। केरल की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2020 में कुल मातृ मृत्यु का लगभग पांचवां हिस्सा आत्महत्या से हुआ।
एम्स के प्रो. राजेश सागर ने विशेषज्ञ परामर्श बैठक के दौरान कहा,
“भारत में राष्ट्रीय कार्यक्रमों में पेरिनेटल मानसिक स्वास्थ्य को तुरंत शामिल करने की आवश्यकता है।”
उन्होंने चिंता जताई कि नई माताओं के लिए कोई विशेष पहल मौजूद नहीं है। हालांकि महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य का उल्लेख नेशनल मेंटल हेल्थ पॉलिसी 2014 और मेंटल हेल्थ केयर एक्ट 2017 में है, लेकिन कोई विशेष कार्यक्रम या स्क्रीनिंग तंत्र नहीं बनाया गया।
निम्हांस (NIMHANS) की प्रो. प्रभा चंद्रा समेत अन्य विशेषज्ञों ने बताया कि डॉक्टरों, नर्सों और आशा कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण की कमी, स्थानीय संस्कृति के अनुसार स्क्रीनिंग टूल्स की अनुपलब्धता और मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ा कलंक महिलाओं को मदद लेने से रोकता है, भले ही उनकी पहचान हो चुकी हो।
विशेषज्ञों ने राज्य-विशिष्ट रणनीतियों, राज्यों के बीच सहयोग, क्षमता निर्माण और एंटेनाटल केयर (गर्भावस्था जांच) के दौरान अनिवार्य मानसिक स्वास्थ्य इतिहास लेने की सिफारिश की।
द जॉर्ज इंस्टीट्यूट फॉर ग्लोबल हेल्थ इंडिया की डॉ. वाई.के. संध्या ने कहा,
“जरूरी है कि पेरिनेटल मानसिक स्वास्थ्य को अलग-थलग मुद्दे के रूप में न देखा जाए, क्योंकि इससे कलंक और भेदभाव और बढ़ सकता है। इसे गर्भावस्था और प्रसवोत्तर देखभाल के नियमित हिस्से के रूप में शामिल किया जाना चाहिए, ताकि यह टिकाऊ और प्रभावी बन सके।”
With inputs from IANS