
“बनत, बनत, बन जाइ” — धीरे-धीरे प्रयास करने से लक्ष्य प्राप्त हो जाता है।
इन सरल लेकिन गहन शब्दों में लाहिड़ी महाशय ने साधकों को प्रेरित किया कि वर्तमान क्षण में पूरे मन से जियो। जो कार्य सामने है, उसमें पूर्ण समर्पण दो; भविष्य अपनी दिव्य व्यवस्था में स्वयं आकार ले लेगा।
जीवन और दिव्य भेंट
लाहिड़ी महाशय का जन्म 30 सितम्बर 1828 को बंगाल के घुर्णी गांव में हुआ। 33 वर्ष की आयु में, जब वे सरकारी लेखाकार के रूप में हिमालय की तराई (रणीखेत के पास) कार्यरत थे, उनकी मुलाक़ात अमर योगी महावतार बाबाजी से हुई। यह वही पावन मिलन था (जिसका उल्लेख ऑटोबायोग्राफी ऑफ़ अ योगी में मिलता है) जहाँ बाबाजी ने उन्हें क्रिया योग में दीक्षित किया और मानवता को इस दिव्य योग-विज्ञान को पुनः प्रदान करने का दायित्व सौंपा।
गृहस्थ योगी का आदर्श
वाराणसी लौटकर लाहिड़ी महाशय ने राजाओं से लेकर साधारण किसानों तक — सभी गंभीर साधकों को क्रिया योग में दीक्षित करना आरंभ किया। परमहंस योगानंद ने समझाया कि यह प्राचीन तकनीक प्राण-शक्ति के साथ प्रत्यक्ष कार्य करती है — शरीर की क्षय गति को धीमा करती है और आध्यात्मिक विकास को तीव्र। 1861 में इसका पुनरुत्थान “सम्पूर्ण मानव जाति के लिए सौभाग्य का क्षण” कहा गया।
योगानंद लिखते हैं—
“जैसे फूलों की सुगंध को रोका नहीं जा सकता, वैसे ही लाहिड़ी महाशय, आदर्श गृहस्थ योगी होते हुए भी, अपनी दिव्य आभा छिपा नहीं सके। भारत के कोने-कोने से भक्त-मधुमक्खियाँ अमृत की तलाश में उनके पास आने लगीं।”
उनका जीवन इस शाश्वत प्रश्न का मौन लेकिन शक्तिशाली उत्तर था—क्या सांसारिक जीवन जीते हुए भी ईश्वर-साक्षात्कार संभव है? उनका उदाहरण बताता है कि हाँ, यह न केवल संभव है बल्कि सहज भी, यदि भीतर से वैराग्य और प्रभु-स्मरण हो।
दिव्य दृष्टि और संदेश
उनकी हल्की मुस्कान और आधी खुली-आधी बंद आँखें इस संतुलन का प्रतीक थीं — बाहर की दुनिया में नाममात्र की रुचि, और भीतर परम आनंद में लीनता। आज भी साधक उनकी प्रतिमा में आध्यात्मिक शक्ति अनुभव करते हैं—संरक्षण, उपचार और ध्यान की गहराई की मौन पुकार।
उनका संदेश सीधा था—
“अपने सभी प्रश्नों का समाधान ध्यान से करो। व्यर्थ अटकलों को त्यागकर ईश्वर-संपर्क का अनुभव लो। भीतर सक्रिय दिव्य मार्गदर्शन से स्वयं को जोड़ो; जीवन की हर समस्या का उत्तर उसी आवाज़ में है।”
शिष्य परंपरा और विरासत
उनके प्रमुख शिष्य स्वामी श्री युक्तेश्वर (जिन्हें ज्ञानावतार कहा गया) ने इस मिशन को शुद्धता से आगे बढ़ाया। उनके शिष्य परमहंस योगानंद ने 1917 में योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इंडिया (YSS) की स्थापना की, ताकि लाहिड़ी महाशय द्वारा प्रदत्त क्रिया योग को विश्वभर में फैलाया जा सके। आज YSS साधकों को ध्यान और ईश्वर-साक्षात्कार के मार्ग पर मार्गदर्शन देता आ रहा है।
आधुनिक युग के लिए प्रेरणा
“योगावतार” कहे जाने वाले लाहिड़ी महाशय का जीवन आधुनिक युग के लिए दिशा-सूचक है—दिखाता है कि सांसारिक कर्तव्यों का पालन करते हुए भी, जीवन का परम उद्देश्य (ईश्वर से एकत्व) धीरे-धीरे, कदम-दर-कदम प्राप्त किया जा सकता है।
उनका वचन आज भी साधकों के लिए दिव्य आश्वासन की तरह गूंजता है—
“बनत, बनत, बन जाइ।”
(“लगातार प्रयास करो, और एक दिन तुम दिव्य लक्ष्य को पा लोगे।”)
✍️ लेखक: विदि बिरला
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