
नई दिल्ली। कोलकाता स्थित बोस इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों की एक टीम ने आंखों की गंभीर और दृष्टि के लिए खतरनाक बीमारी फंगल केराटाइटिस के इलाज के लिए एक नई पेप्टाइड थेरेपी विकसित की है। यह संक्रमण कॉर्निया यानी आंख के सामने के पारदर्शी हिस्से को प्रभावित करता है। इस शोध में हैदराबाद के एल. वी. प्रसाद आई इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिक भी शामिल रहे।
शोधकर्ताओं ने 15 अमीनो एसिड से बना एक विशेष पेप्टाइड तैयार किया है, जिसे SA-XV नाम दिया गया है। यह पेप्टाइड शरीर की प्राकृतिक रक्षा प्रणाली से जुड़े एक बड़े होस्ट-डिफेंस पेप्टाइड S100A12 से विकसित किया गया है। पहले के अध्ययनों में यह फंगल वृद्धि को रोकने में प्रभावी पाया गया था, जबकि वर्तमान शोध में इसकी एंटीफंगल क्षमता और कार्यप्रणाली का विस्तृत विश्लेषण किया गया है।
यह अध्ययन प्रतिष्ठित वैज्ञानिक पत्रिका जर्नल ऑफ बायोलॉजिकल केमिस्ट्री में प्रकाशित हुआ है। शोधकर्ताओं का कहना है कि यह नई थेरेपी मौजूदा एंटीफंगल दवाओं का एक बेहतर विकल्प बन सकती है, जिसमें दुष्प्रभाव अपेक्षाकृत कम होंगे।
कॉर्निया से जुड़े संक्रमणों को अक्सर “धीमी महामारी” कहा जाता है, जो भारत में बड़ी संख्या में लोगों को प्रभावित कर रहे हैं, खासकर कृषि पृष्ठभूमि से जुड़े लोगों को। इसके अलावा, कॉन्टैक्ट लेंस के अत्यधिक उपयोग और साफ-सफाई में लापरवाही भी इन संक्रमणों का एक बड़ा कारण है।
वर्तमान में फंगल संक्रमण के इलाज के लिए एम्फोटेरिसिन-बी ही एक प्रमुख दवा उपलब्ध है, लेकिन इसके गंभीर दुष्प्रभाव हैं। यह दवा किडनी को नुकसान पहुंचा सकती है और इसमें उच्च हेमोलिटिक गतिविधि होती है, जिससे लाल रक्त कोशिकाएं तेजी से नष्ट होने लगती हैं। ऐसे में सुरक्षित और प्रभावी नई एंटीफंगल दवाओं की तत्काल आवश्यकता महसूस की जा रही है।
चूहों पर किए गए प्रयोगों में SA-XV के उपयोग से केराटाइटिस की गंभीरता में उल्लेखनीय कमी देखी गई।
बोस इंस्टीट्यूट (विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग के अंतर्गत एक स्वायत्त संस्थान) के प्रोफेसर अनिर्बान भुनिया के नेतृत्व में शोध दल ने बताया, “ये एंटीमाइक्रोबियल पेप्टाइड्स गैर-विषैले हैं, रक्त सीरम में स्थिर रहते हैं और फ्यूजेरियम तथा कैंडिडा प्रजातियों के फंगस के प्लैंक्टोनिक और बायोफिल्म दोनों रूपों की वृद्धि को प्रभावी रूप से रोकते हैं।”
शोधकर्ताओं ने बताया कि SA-XV पहले फंगल कोशिका की दीवार और प्लाज्मा मेम्ब्रेन के साथ संपर्क करता है। इसके बाद यह कोशिका झिल्ली को पार कर साइटोप्लाज्म में पहुंचता है और फिर नाभिक में जाकर डीएनए से जुड़कर कोशिका चक्र को रोक देता है। अंत में यह माइटोकॉन्ड्रिया को निशाना बनाकर उन्हें क्षतिग्रस्त करता है और अपोप्टोसिस की प्रक्रिया के जरिए फंगल कोशिकाओं की मृत्यु का कारण बनता है।
अध्ययन में यह भी सामने आया है कि SA-XV केवल एक एंटीफंगल एजेंट ही नहीं है, बल्कि यह कॉर्निया के घाव भरने की प्रक्रिया को भी तेज करने में सहायक हो सकता है।
शोधकर्ताओं के अनुसार, यह पेप्टाइड भविष्य में फंगल संक्रमण के इलाज और कॉर्नियल घावों के उपचार के लिए एक नई और प्रभावी चिकित्सकीय विकल्प के रूप में विकसित हो सकता है, जो मौजूदा उपचार पद्धतियों का बेहतर विकल्प साबित होगा।
With inputs from IANS