
चेन्नई- तमिलनाडु के शोधकर्ताओं ने एक बार फिर चेतावनी दी है कि लगभग दो दशक पहले प्रतिबंधित की गई एक पशु चिकित्सा दवा भारत में गंभीर रूप से संकटग्रस्त गिद्धों के लिए अब भी बड़ा खतरा बनी हुई है। एक नए व्यापक अध्ययन में पुष्टि हुई है कि डाइक्लोफेनाक — जिस पर वर्ष 2006 में पशुओं के इलाज में प्रतिबंध लगाया गया था — देश के कई हिस्सों में आज भी मवेशियों के उपचार के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है।
ये निष्कर्ष अध्ययन “दक्षिण एशिया में गंभीर रूप से संकटग्रस्त जिप्स प्रजाति के गिद्धों के लिए विषैले एनएसएआईडी का लगातार बना खतरा” का हिस्सा हैं, जिसे 13 शोधकर्ताओं ने 2012 से 2024 के बीच किया और हाल ही में प्रतिष्ठित पत्रिका बर्ड कंजरवेशन इंटरनेशनल में प्रकाशित किया गया।
अध्ययन में सामने आया है कि एशिया में पाई जाने वाली जिप्स प्रजाति की तीन प्रमुख गिद्ध प्रजातियां — सफेद पीठ वाला गिद्ध, लाल सिर वाला गिद्ध और लंबी चोंच वाला गिद्ध — अब भी अनजाने में होने वाले ज़हर के कारण अपनी संख्या में लगातार गिरावट झेल रही हैं।
जब ये गिद्ध डाइक्लोफेनाक से उपचारित मवेशियों के शवों को खाते हैं, तो उन्हें घातक किडनी फेलियर हो जाता है। यही कारण 1990 के दशक से गिद्धों की आबादी में आई तेज गिरावट का मुख्य कारण माना गया है।
हालांकि केंद्र सरकार ने मई 2006 में डाइक्लोफेनाक के पशु चिकित्सा उपयोग पर प्रतिबंध लगाया था और 2015 में मल्टी-डोज शीशियों पर अतिरिक्त पाबंदियां भी लगाई थीं, इसके बावजूद यह दवा आज भी अवैध रूप से बाजार में उपलब्ध पाई जा रही है।
शोधकर्ताओं के अनुसार, राजस्थान में — जहां गिद्ध संरक्षण को लेकर व्यापक जागरूकता अभियान नहीं चलाए गए हैं — स्थिति सबसे चिंताजनक है। सर्वे में पाया गया कि वहां की लगभग 25 प्रतिशत फार्मेसियों में डाइक्लोफेनाक उपलब्ध था।
तमिलनाडु के ‘वल्चर सेफ ज़ोन’ (वीएसजेड) की स्थिति तुलनात्मक रूप से बेहतर रही, लेकिन वहां भी निगरानी और प्रवर्तन से जुड़ी चुनौतियां बनी हुई हैं।
संरक्षण संगठन अरुलगम के सचिव एस. भारतिदासन, जो तमिलनाडु में वीएसजेड सर्वे में शामिल रहे, ने बताया कि अब तक आपूर्तिकर्ताओं, निर्माताओं और खुदरा विक्रेताओं के खिलाफ 100 से अधिक अदालती मामले दर्ज किए जा चुके हैं। उन्होंने कहा कि तमिलनाडु में पाए गए डाइक्लोफेनाक के अधिकांश वायल कर्नाटक से आए थे, जो वीएसजेड के दायरे से बाहर है और जहां संरक्षण को लेकर जागरूकता अपेक्षाकृत कम है।
अध्ययन में यह भी सामने आया है कि पशु चिकित्सा एनएसएआईडी की उपलब्धता राज्यों में काफी अलग-अलग है। तमिलनाडु की 64.3 प्रतिशत फार्मेसियों में ये दवाएं उपलब्ध थीं, जबकि राजस्थान में यह आंकड़ा 100 प्रतिशत तक पाया गया।
पाया गया अधिकांश डाइक्लोफेनाक 3 मिलीलीटर की शीशियों में रखा गया था, जो मानव उपयोग के लिए तो कानूनी हैं, लेकिन पशुओं के इलाज के लिए अवैध हैं। यही स्थिति इसके दुरुपयोग का एक बड़ा रास्ता बन गई है।
हालांकि केंद्र सरकार ने जुलाई 2023 से केटोप्रोफेन और एसेक्लोफेनाक पर भी प्रतिबंध लगाया है, वहीं तमिलनाडु ने पहले ही सक्रिय कदम उठाते हुए 2019 से नीलगिरी, इरोड और कोयंबटूर जैसे प्रमुख गिद्ध आवास क्षेत्रों में फ्लुनिक्सिन के उपयोग पर रोक लगा दी थी और 2015 में ही केटोप्रोफेन पर नियंत्रण कर दिया था।
इसके बावजूद शोधकर्ताओं ने चेतावनी दी है कि केवल ज्ञात विषैली दवाओं पर प्रतिबंध लगाना पर्याप्त नहीं है, यदि बिना परीक्षण किए गए विकल्प समान जोखिम के साथ बाजार में आते रहें। उन्होंने मानव उपयोग की दवाओं की शीशियों को पशु चिकित्सा में इस्तेमाल किए जाने से रोकने और सख्त प्रवर्तन सुनिश्चित करने की आवश्यकता पर जोर दिया। शोधकर्ताओं का कहना है कि जब तक डाइक्लोफेनाक के अवैध उपयोग को राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर पूरी तरह समाप्त नहीं किया जाता, तब तक गिद्धों की आबादी लगातार खतरे में बनी रहेगी।
With inputs from IANS